अपनों के चाहतों ने दिए इस कदर फरेब !
रोते रहे लिपट के हर एक अजनबी से हम !!
मरने के बाद भी मेरी आँखें खुली रही !
आदत जो पद गई है तेरे इंतज़ार की !!
हम बावफा थे इसलिए नज़रों से गिर गए !
शायद उन्हें तलाश किसी बेवफा की थी !!
कुछ यूं हमारे ज़ख्म का उसने किया इलाज़ !
मरहम भी गर लगाया तो कांटे के नोक से !!
गीले कागज़ की तरह ज़िन्दगी अपनी ठहरी !
कोई लिखता भी नहीं कोई जलाता भी नहीं..........
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